Home
Jeevan Parichaya
Sangh Parichaya
Guru Bhakti
Chaumasas
Sahitya Rachna
Jain Darshan
Tirthankaras Parichaya
Jain Festivals
Jain Tales
Mukhya Tirth Kshetra
Downloads
FAQ
About Us

अन्जन चोर की कहानी

राजगृह नगर में अंजन चोर रहता था । वह केवल चोर ही नहीं था, व्यभिचारी भी था । विलासिनी नामक वेश्या से उसका बहुत प्रेम था । एक दिन वेश्या ने वहां के राजा प्रजापाल की रानी के गले में रत्नों का हार देखा और चाहा कि यह रत्नहार मुझे मिल जावे ।

जब अॅंधेरे प्क्ष की चैदश की रात्रि को अंजन चोर वेश्या के घर गया तो उसने कहा कि मैं अपने ऊपर आपका सच्चा प्रेम तभी समझूंगी जब आप रानी के गले का हार मुझे ला देवेगें ।

यह सुनकर अंजन चोर राजमहल को गया । वहां रानी नीद में सो रही थी । चोर बड़ी सावधानी से रानी के गले का हार निकाल कर चल दिया । वह लेकर बाहर निकलने ही बाला था कि इतने में महल के पहरेदार और शहर के कोतवाल ने उसे चमकता हुआ हार ले जाते हुये देखा । उन्होनें चोर को उसी समय पकड़ लिया । आपस में बहुत खेंचतान हुई । अन्त में चोर उन दोनों के हाथ से छूट गया और हार वहीं छोड़कर भाग निकला । भागते-भागते वह मरघट में जा पहंुचा । वहां पहुंच कर उसने देखा कि सोमदत्त नामक एक मनुष्य बड़ के वृक्ष से बॅंधे हुये सींके पर चढ़ता और उतरता है । सोमदत्त का यह हाल देख कर अंजन ने उसका कारण पूंछा ।

सोमदत्त ने कहा कि इस नगर में एक जिनदास सेठ है। उन्हें आकाशगामिनी विद्या सिद्ध है । उन्होनें मुझे विद्या सिद्ध करने की रीति बतलाई है वह इस प्रकार है कि - धेरे प्क्ष की चैदश की रात्रि को श्मशान भूमि में बड़ के वृक्ष की डाली से एक सौ आठ रस्सी का सींका बाॅधो । सींके के नीचे धरती पर भाला, बरछी , तलवार आदि नुकीले हथियार ऊपर की ओर नोंकें करके खड़े करो और सींके में बैठकर णमोकार मंत्र प्ढ़ते हुये चाकू से एक-एक रस्सी काटते जाओ । अन्तिम रस्सी कटने पर विद्या सिद्ध होवेगी और तुम्हें अधर ही में झेल लेवेगी । परन्तु भाई मुझे संशय लग रहा है कि यदि सेठ जी का वचन झूठ निकला तो प्राण जांयगे ।

यह सुनकर अंजन चोर ने विचारा कि मैं सिपाहियों के हाथ से छूट कर आया हूं, पकड़े जाने पर मरना है ही, यदि यह विद्या सीख लूंगा तो बच भी सकता हूं । इसलिये अंजन ने सोमदत्त के कहने पर पक्का विश्वास किया और वह मन्त्र विधि सीख कर बड़े संतोष के साथ सींके के अन्दर बैठा तथा निःशंक होकर पंच नमस्कार मंत्र प्ढ़ते हुये चाकू से एक-एक रस्सी काटने लगा । सब रस्सियां कट जाने के बाद हथियारों पर गिरने को ही था कि आकाशगामिनी विद्या ने उसे झेल लिया और कहने लगी कि मैं आपको सिद्ध हुई हूंॅ, अब आप जैसी आज्ञा देगें मैं वैसा ही करूंगी । तब अंजन बहुत प्रसन्न हुआ और कहने लगा कि मुझे जिनदास सेठ के पास ले चलो ।

पश्चात् वे भव्यसेन के पास गये और उन्हें भी नमस्कार किया पर अभिमानी भव्यसेन ने क्षुल्लक जी की ओर देखा भी नहीं । ठीक है, मिथ्यात्व के उदय में ग्यारह अंग तक का ज्ञान भी जीव को हितकर नहीं होता । जब भव्यसेन बस्ती के बाहर टट्टी फिरने निकले तो क्षुल्लक भी साथ हो गये और विद्या के बल से वहां हरियाली कर दी ।

विद्या उसे विमान में बैठाकर सुदर्शन मेरु पर ले गयी, जहां सेठ जिनदास जी वन्दना को गये थे वहां अंजन ने पहले तो अकृत्रिम जिन चैत्यालयों की भाव सहित वन्दना की फिर वह सेठ को नमस्कार करके कहने लगा कि महाराज आपके प्रसाद से मुझे इतना बड़ा लाभ हुआ है । अब आप कृपा करके मुझे पवित्र जैन धर्म का उपदेश दीजिये । तब वे उसे एक मुनिराज के पास ले गये । वहां उन्होनें उसे मुनि और श्रावक का धर्म सुनाया उसे सुन कर अंजन का चित्त बहुत कोमल हो गया । वे अपने पापों पर बहुत पछताये और मुनिराज के पास मुनिदीक्षा लेकर तप करने लगे और थोड़े दिनों में केवलज्ञानी बन कर मुक्त हो गये ।

सारांश - विवेकी को उचित है कि जैन तत्वों पर अंजन चोर के समान पक्का विश्वास करें, सोमदत्त के समान संशय नहीं करें ।


Copyright © 2003. All rights reserved PHOENIX Infotech, Lko.